Ankit Bansal
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“आत्म -मंथन”
Ankit Bansal
March, 2005
कहता
हूँ
,
गाता
हूँ,
बार
–
बार
दोहराता
हूँ
रोकता
हूँ
यह
कदम
अपने
फिर
वहीँ
पहुँच
जाता
हूँ
जानता
हूँ
पर
कह
नहीं
सकता
जिससे
बचना
चाहता
हूँ
उसी
में
धसता
चला
जाता
हूँ
शिक़ायत
है
की
हवा
नहीं
चलती
सरदी
में
गरमी
लगती
है
गरमी
में
गरमी
नहीं
लगती
अक्सर
उड़
जाते
हैं
फूल
जो
उठाता
हूँ
बस
दो
ही
पल
इस
धूप
में
झुलस
जाता
हूँ
नहीं
भाता
मुझको
,
यह
सावन
का
महीना
चिड़ियों
की
चेह्चाहट
,
वो
पानी
का
गिरना
चुब्ती
है
मुझे
यह
बादल
की
गर्जन
,
व्याकुल
हो
जाता
हूँ
क्यों
देखते
ही
फिर
बादल
काले
घर
से
निकल
जाता
हूँ
यह
साधारण
सी
चीजे,
पसंद
नहीं
आती
इन
लोगों
की
बातें,
मुझे
समझ
नहीं
आती
व्यंग
करता
हूँ
उपहास
उडाता
हूँ
देखता
हूँ
जब
आईने
में
खुद
को
तुच्छ
पाता
हूँ
करते
हैं
लोग
जाने,
क्या
क्या
इस
संसार
में
मिट
जायेंगे
एक
दिन
अपने
ही
अंहकार
में
नहीं
समझ
मुझे
अच्छा
हूँ
या
बुरा
हूँ
अपने
तुच्छ
विश्वास
पर
मैं
स्वयम
द्रिड
हो
जाता
हूँ
भावुकता
के
अंधकार
में,
द्रष्टि
हीन
हुए
जो
हैं
सोच
नहीं
पाते
क्या
जाने
,
खोये
क्यों
हैं
बेचनी
देखकर
उनकी
बेचैन
मैं
हो
जाता
हूँ
चीखता
हूँ,
चिल्लाता
हूँ,
क्रोधित
मन
की
भावुकता
छलकता
हूँ
चिल्लाकर
-
चिल्लाकर
सच
पूछता
हूँ
विश्वास
नहीं
आ
पाता
जब
खुद
को
ही
झूठा
पाता
हूँ
जानता
हूँ
पर
कह
नहीं
सकता
जिससे
बचना
चाहता
हूँ
उसी
में
धसता
चला
जाता
हूँ
.