"अंतर्ध्वनि "
Ankit Bansal
July 2008
उठना-गिरना, गिरकर संभलना
गम, न ख़ुशी, निर्भय निरंतर पग पग बढ़ना
कर्म यही सच है राही - चलते जाना
निर्मल मन, शांत, स्थिर- बस बड़ते जाना
हर पल एक संघर्ष मन में
अपेख पट पर नवीन चित्र रंगता है
व्याकुल, मासूम वह - जूझता साए से नित
प्रतिबिम्ब ढूँढता - लकीरों से प्रतिछाया रचता है
भय अंधकार में - हर शवास अबोध जैसे
निर्मल उद्भव, निकल माया दलदल से घिर जाता है
जिस कर्णप्रिय शोर में, खोजता अंतर्ध्वनि को,
वही नाद अब अन्तः निरंतर गुंजन कर पाता है
चैतन्य वह जो - चेतनाहीन है
वो सर्वज्ञ, सब जानकर भी, अज्ञान निद्रा में सुप्त है
नवीन अभिलाषा नित - स्वतंत्र भाव, और विचार की
पर जोड़ता जर्जर बंधनों को - और कुछ नए जाल बुनता है
भ्रम कैसा - है कैसी यह तृष्णा
निद्रा अनंत - पर मानो स्वप्न खो गया हो
प्रकाश चकाचौंध , दृष्टिहीन कर देता जैसे
किसी अंधकार में - अद्रश्य सब हो गया हो
क्यों संघर्ष में निरंतर - वो अंतर्ध्वनि और वो चेतना
माया धूमिल यह मन - अन्तः में अहम् की गर्जन
निद्रा नहीं - कर्म तेरा बस चलते जाना
तू चैतन्य, निर्मल जीवन - तुझे बहुत दूर है जाना .......
गम, न ख़ुशी, निर्भय निरंतर पग पग बढ़ना
कर्म यही सच है राही - चलते जाना
निर्मल मन, शांत, स्थिर- बस बड़ते जाना
हर पल एक संघर्ष मन में
अपेख पट पर नवीन चित्र रंगता है
व्याकुल, मासूम वह - जूझता साए से नित
प्रतिबिम्ब ढूँढता - लकीरों से प्रतिछाया रचता है
भय अंधकार में - हर शवास अबोध जैसे
निर्मल उद्भव, निकल माया दलदल से घिर जाता है
जिस कर्णप्रिय शोर में, खोजता अंतर्ध्वनि को,
वही नाद अब अन्तः निरंतर गुंजन कर पाता है
चैतन्य वह जो - चेतनाहीन है
वो सर्वज्ञ, सब जानकर भी, अज्ञान निद्रा में सुप्त है
नवीन अभिलाषा नित - स्वतंत्र भाव, और विचार की
पर जोड़ता जर्जर बंधनों को - और कुछ नए जाल बुनता है
भ्रम कैसा - है कैसी यह तृष्णा
निद्रा अनंत - पर मानो स्वप्न खो गया हो
प्रकाश चकाचौंध , दृष्टिहीन कर देता जैसे
किसी अंधकार में - अद्रश्य सब हो गया हो
क्यों संघर्ष में निरंतर - वो अंतर्ध्वनि और वो चेतना
माया धूमिल यह मन - अन्तः में अहम् की गर्जन
निद्रा नहीं - कर्म तेरा बस चलते जाना
तू चैतन्य, निर्मल जीवन - तुझे बहुत दूर है जाना .......