कितने अधिक शब्द, कितना कम पहुँचता है उलझे से वाक्य बुनकर अर्थ बनाते हैं कुछ और चाहते, कुछ कहते जाते हैं पूरी बात कहने को शब्द भी घबराते है
शिकायत उन्हें, बात नहीं करते आप तुम रह जाता है, शुरुवात नहीं करते कितना भी कह दो, कम सा लगता है ख़ामोशी में स्पंदन है, पर मौन अखरता है
बात ना निकले, तोएहसास नहीं होता शब्द बिना तुम्हारे होने का, विश्वास नहीं होता जो बातें तुम कहते हो, थोड़ी समझ आती हैं एक नज़र में लेकिन कभी, पूरी कहानी पता चल जाती है
सब चहरा बता गया फिर भी ख्वाहिश यह की, कुछ बोलें वो भी कुछ बोलना चाहा मगर तो डर यह भी कि एहसास बिखर न जाये कहीं
शब्दों से ही यह पंक्तियाँ हैं जो तुम तक जातीं हैं भावों को कहाँ कोई पकड़ पाया वरना सुबह होते ही ऑस सूख जाती है
शब्द हैं तो गीत है, बिना शब्द सन्नाटा है सन्नाटे से भी एक आहाट सी आती है और जब शब्द असमर्थ हो जातें हैं ख़ामोशी सब कह जाती है
कुछ सुना कल, बातों ही बातों में सोचे अगर, तो सोये कैसे रातों में यादों के कोने में तस्वीर नहीं टिकती कुछ शब्द हैं बस, जो आधी रात जगाते हैं
सोच सोच पसीने से तर हैं भावों की रूह को शरीर मिल जाता कुछ न हो कहने को, तो शब्दों का मेला है कुछ कहना हो जरूरी, तो शब्द इतराते हैं